"संग्रहीत प्रति". मूल से 25 नवंबर 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 नवंबर 2010.
ntu.edu.tw
ccbs.ntu.edu.tw
Reichenbach, Bruce R. (April 1989). "Karma, causation, and divine intervention". Philosophy East and West. Hawaii: University of Hawaii Press. 39 (2): p. 145. अभिगमन तिथि 2009-12-29. |pages= और |page= के एक से अधिक मान दिए गए हैं (मदद)सीएस1 रखरखाव: फालतू पाठ (link)
कर्मा का थिस्टिक स्पष्टीकरण देखें, पृष्ठ 146 ऑफ़ कॉसेशन एंड डिवाइन इंटरवेंशन बाई बीआर रेचेंबैक एट http://ccbs.ntu.edu.tw/FULLTEXT/JR-PHIL/reiche2.htm citing Sankara's commentary on Brahma Sutras,III, 2, 38, and 41.
"संग्रहीत प्रति". मूल से 9 जून 2011 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 नवंबर 2010.
ssvt.org
"संग्रहीत प्रति". मूल से 5 अक्तूबर 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 नवंबर 2010.
swami-krishnananda.org
ब्रह्मा सूत्र III.2.38 शिवानंद द्वारा "फ्रॉम हिम (द लॉर्ड) आर द फ्रूट्स ऑफ़ एक्शंस, फॉर डैट इज रिज्न्बल" के रूप में फलामता उपपत्तेह का अनुवादित हुआ. [1] वेब साइट की जाँच 13 अप्रैल 2005.
हे महान ऋषि, उनमें से लाखों जो मुक्त हैं और मुक्ति के ज्ञान से परिपूर्ण हैं, जो हो सकता है भगवान नारायण या कृष्ण के भक्त हो. ऐसे भक्त, जो पूरी तरह शांत हैं, बहुत दुर्लभ हैं. श्रीमद भागवतम 6.14.5Archived 2011-08-13 at the वेबैक मशीन
दूसरी ओर विशुद्ध भक्तिपरक सेवा, फलदायक काम, दार्शनिक अटकलों, रहस्यवादी चिंतन .... से कहीं अधिक श्रेष्ठतर है. कर्म, ज्ञान और योग की गतिविधियों की उस तरह से निंदा उनके द्वारा जो भक्ति, भक्तिपरक सेवा करते हैं, नहीं की गयी हैं. बल्कि, इन गतिविधियों में लगे रहनेवाले जब परमपरमेश्वर की सेवा में सामंजस्य स्थापित करते हैं तो भक्तिपरक सेवा उनके लिए अनुकूल होती है. उदाहरण के लिए, कर्म, या क्रिया जब भक्ति सेवा के साथ जुड़ जाता है तो यह क्रिया में कृष्ण चैतन्य, कर्म-योग हो जाती है. भगवान कृष्ण ने भगवत गीता (9.27) में कहा है: यत्करोषि यदशनासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।/ "हे कुंती पुत्र, तुम जो भी करते हो, तुम जो भी खाते हो, तुम यज्ञ में अर्पित करते हो या दान देते हो और जो तपस्या करते हो - जो भी करते हों, वह सब तुम मुझे अर्पण करते हो."(भग. 9.27).नारद भक्ति सूत्र 25Archived 2012-03-06 at the वेबैक मशीन
हे महान ऋषि, उनमें से लाखों जो मुक्त हैं और मुक्ति के ज्ञान से परिपूर्ण हैं, जो हो सकता है भगवान नारायण या कृष्ण के भक्त हो. ऐसे भक्त, जो पूरी तरह शांत हैं, बहुत दुर्लभ हैं. श्रीमद भागवतम 6.14.5Archived 2011-08-13 at the वेबैक मशीन
दूसरी ओर विशुद्ध भक्तिपरक सेवा, फलदायक काम, दार्शनिक अटकलों, रहस्यवादी चिंतन .... से कहीं अधिक श्रेष्ठतर है. कर्म, ज्ञान और योग की गतिविधियों की उस तरह से निंदा उनके द्वारा जो भक्ति, भक्तिपरक सेवा करते हैं, नहीं की गयी हैं. बल्कि, इन गतिविधियों में लगे रहनेवाले जब परमपरमेश्वर की सेवा में सामंजस्य स्थापित करते हैं तो भक्तिपरक सेवा उनके लिए अनुकूल होती है. उदाहरण के लिए, कर्म, या क्रिया जब भक्ति सेवा के साथ जुड़ जाता है तो यह क्रिया में कृष्ण चैतन्य, कर्म-योग हो जाती है. भगवान कृष्ण ने भगवत गीता (9.27) में कहा है: यत्करोषि यदशनासि यज्जुहोषि ददासि यत्। यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्।।/ "हे कुंती पुत्र, तुम जो भी करते हो, तुम जो भी खाते हो, तुम यज्ञ में अर्पित करते हो या दान देते हो और जो तपस्या करते हो - जो भी करते हों, वह सब तुम मुझे अर्पण करते हो."(भग. 9.27).नारद भक्ति सूत्र 25Archived 2012-03-06 at the वेबैक मशीन
"संग्रहीत प्रति". मूल से 25 नवंबर 2010 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 11 नवंबर 2010.